जैसी भावना, वैसा अनुभव: मंदिर निर्माण की प्रेरणादायक कथा

जैसी भावना, वैसा अनुभव: मंदिर निर्माण की प्रेरणादायक कथा

प्रसंग: गंगा किनारे संत का आश्रम

गंगा के पावन तट पर एक संत का आश्रम था।
आश्रम में तीन शिष्य तपस्या, सेवा और शिक्षा में लगे हुए थे।
संत समय-समय पर अपने शिष्यों की परीक्षा लिया करते थे — क्योंकि केवल ज्ञान देना ही नहीं, उसे जीवन में उतारने की जांच करना भी शिक्षक का कर्तव्य होता है।

परीक्षा: मंदिर निर्माण का आदेश

एक दिन संत ने तीनों शिष्यों को बुलाया और उन्हें आदेश दिया —
"आश्रम के पास एक मंदिर बनाओ, प्रभु की सेवा का अवसर है।"

तीनों शिष्य उत्साह से काम में लग गए।
मंदिर निर्माण में कई दिन लगे। जब कार्य पूर्ण हुआ, संत ने सबको बुलाकर उनके अनुभव जानने चाहे।

पहला शिष्य: श्रम में बंधा मन

संत ने पहले शिष्य से पूछा —
"मंदिर निर्माण के दौरान क्या अनुभव हुआ?"

उसने उत्तर दिया —
"गुरुदेव! मुझे तो ऐसा लगा जैसे मैं एक गधे की तरह बस मजदूरी कर रहा हूं। रोज़ पत्थर उठाना, ईंट जमाना... मन ऊब गया।"

दूसरा शिष्य: स्वार्थ में डूबा उद्देश्य

संत ने दूसरे शिष्य से वही प्रश्न किया।

उसने कहा —
"गुरुदेव! मैंने मेहनत तो की, पर मन में यही विचार आता रहा कि जल्दी से मंदिर बन जाए ताकि भगवान प्रसन्न हों और मेरा भी कोई कल्याण हो जाए।"

तीसरा शिष्य: भक्ति में रमा हृदय

अब बारी थी तीसरे शिष्य की।

उसने भावुक होकर उत्तर दिया —
"गुरुदेव! मैं तो इसे प्रभु की सीधी सेवा मानता रहा। जब भी मैं ईंट रखता, मुझे लगता जैसे प्रभु मुझे अपनी सेवा का अवसर दे रहे हैं। मैं हर दिन उनका आभार मानता था। यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने उनकी छवि के लिए एक निवास स्थान बनाया।"

संत की सीख: भाव ही वास्तविक साधना है

संत ने तीसरे शिष्य को गले लगा लिया और बोले —
"तुम्हीं ने सच्चे भाव से सेवा की। तुम तीनों ने एक ही काम किया — पर मनोभाव में फर्क था।"

  • पहला शिष्य मज़दूरी के भाव से काम कर रहा था।

  • दूसरा स्वार्थ और फल की इच्छा से प्रेरित था।

  • तीसरा निष्काम भाव और समर्पण से कार्य कर रहा था।

"कर्म का महत्व है, पर उससे भी बड़ा है कर्म के पीछे का भाव।"
"जैसी भावना रहती है, वैसा ही फल आता है।"

भावना ही सच्चा भजन है

संत ने आगे कहा —
"कई लोग मंदिर में भजन गाते हैं, हाथ जोड़ते हैं – लेकिन मन कहीं और होता है।"
"जैसे ही फोन आया, तुरंत दुनियावी बातें शुरू – और फिर दो मिनट बाद फिर से भगवान का नाम।"
"ये तो बस शरीर की पूजा है – भगवान तो मन में होते हैं, तन में नहीं।"

निष्कर्ष: ‘जाकी रही भावना जैसी’ का सार

तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है —
"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तीन तैसी।"

  • भगवान हमारे कर्म से अधिक हमारे भावना को देखते हैं।

  • कोई पूजा करे या सेवा — अगर उसमें निष्ठा, समर्पण और भक्ति नहीं है, तो वह मात्र औपचारिकता है।

  • लेकिन अगर सच्चे भाव से कोई छोटा सा काम भी किया जाए, वह ईश्वर को अत्यंत प्रिय होता है।

सीख

  • हर कार्य को सेवा और साधना समझकर करें।

  • केवल दिखावे और फल की इच्छा से किया गया काम कभी आत्मिक संतोष नहीं देता।

  • कर्म वही श्रेष्ठ है, जिसमें समर्पण और प्रेम हो।