भक्त बड़ा कि भगवान? – श्रीहरि का सुंदर उत्तर

एक दिन नारदजी के मन में विचार आया –
"इस ब्रह्मांड में सबसे बड़ा कौन है?"
वे सीधे भगवान विष्णु के पास पहुंचे और प्रश्न किया।
भगवान ने प्रश्न को प्रश्नों से सुलझाया
भगवान मुस्कराए और बोले –
"सबसे पहले तो पृथ्वी बड़ी है, क्योंकि सबकुछ उसी पर टिका है।"
नारदजी ने स्वीकार किया।
भगवान बोले –
"लेकिन पृथ्वी को तो समुद्र ने चारों ओर से घेर रखा है, तो समुद्र बड़ा हुआ।"
नारदजी ने सहमति दी।
भगवान बोले –
"लेकिन समुद्र को तो अगस्त्य मुनि ने पी लिया था। फिर अगस्त्य मुनि तो समुद्र से भी बड़े हुए।"
नारदजी ने कहा –
"तो फिर अगस्त्य मुनि सबसे बड़े हैं।"
फिर श्रीहरि बोले –
"पर वे रहते कहाँ हैं? आकाश में एक छोटे से स्थान पर। फिर तो आकाश सबसे बड़ा है!"
नारदजी ने कहा –
"हाँ, आकाश ने पूरी सृष्टि को ढँक रखा है, वह सबसे बड़ा है।"
भगवान ने मुस्कराकर कहा –
"लेकिन आकाश को मैंने वामन अवतार में एक पग में नाप लिया था। फिर तो वामन बड़ा हुआ!"
नारदजी बोले –
"प्रभु, वह वामन तो आप ही थे। इसलिए आप सबसे बड़े हैं।"
श्रीहरि ने दिया अंतिम उत्तर
भगवान विष्णु ने कहा –
"मैं चाहे जितना बड़ा हो जाऊं, फिर भी अपने भक्तों के छोटे से हृदय में समा जाता हूं। भक्त के हृदय में जो स्थान मुझे मिलता है, वह सबसे बड़ा होता है। इसलिए सबसे महान मेरे भक्त हैं।"
नारदजी की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा –
"भगवान, जो स्वयं को भक्त से छोटा मानता है, वह ही सच्चा ईश्वर है। मुझे अपनी शंका पर खेद है। अब मैं कभी भी यह विचार नहीं करूंगा कि कौन बड़ा है, कौन छोटा।"
इस कथा का भावार्थ
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भक्ति का मूल्य माप से परे है।
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भगवान स्वयं कहते हैं – जो मुझे निष्काम भाव से स्मरण करता है, मैं उसी के हृदय में बसता हूं।
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सच्चा भक्त, अपनी श्रद्धा, सेवा और प्रेम से भगवान को वश में कर लेता है।
अंतिम पंक्तियाँ विचार के लिए छोड़ती हैं एक संदेश:
"तेरा तुझको सौंपते, क्या लागे है मोरा…"
जब हम अपना सब कुछ भगवान को समर्पित कर देते हैं, तब वे अपना सब कुछ हमें सौंप देते हैं।